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चौथा सूक्त
भागवत संकल्प-पुरोहित, योद्धा और हमारी यात्राका नेता
[ ऋषि भागवत शक्तिकी स्तुति करता है कि वह आत्माकी सत्ताके आरोहणशील स्तरोंपर उसके सभी क्रमिक जन्मोंको जानती है और उसकी ऊर्ध्वगामी तथा अग्रगामी यज्ञ-यात्राओंके पुरोहितके रूपमें उसे पवित्रता, शक्ति, ज्ञान, वृद्धिशील ऐश्वर्य, नयी रचनाकी क्षमता और आध्यात्मिक सर्जनशीलता प्रदान करती है जिससे मर्त्य अमरतामें बढ़ता है ।
यह शक्ति शत्रुओं, आक्रान्ताओं, बुराईकी शक्तियोंको नष्ट-भ्रष्ट कर देती है और वे जिस ऐश्वर्यको रोके रखनेका प्रयत्न करते हैं उस सबसे आत्माको समृद्ध कर देती है । यह मानसिक, प्राणिक एवं शारीरिक सत्ताकी त्रिविध शान्ति एवं त्रिविध परिपूर्णता प्रदान करती है, अतिमानसिक सत्यके प्रकाशमें प्रयास करती है और हमारे अन्दर शाश्वत आनन्दके लोकका निर्माण करती हुई यह हमें पार ले जाती हे । ] १
त्वामग्ने वसुपतिं वसूनामभि प्र. मन्दे अध्वरेषु राजन् । त्वया वाजं वाजयन्तो जयेमाऽभि ष्याम पृत्युतीर्मर्त्यानाम् ।।
(अग्ने) हे अग्निशक्ति ! (वसूनाम् वसुपतिम्) वसुओंके स्वामी अर्थात् सारतत्त्वके प्रभुओंके अधिष्ठाता (त्वाम् अभि) तेरे प्रति (अध्वरेषु प्र मन्दे) यज्ञोंकी प्रगति में मैं अपने आनन्दको प्रेरित करता हूँ । (राजन्) हे राजन् ! (त्वया) तुझसे (वाजयन्त:) तेरी परिपूर्णताको बढ़ाते हुए हम (वाजं जयेम) अपनी प्रचुरता प्राप्त करें । और (मर्त्यानाम् पृत्सुती: अभि स्याम) मर्त्य शक्तियोंके सशस्त्र आक्रमणोंको परास्त कर दें ।
२
हव्यवाळग्निरजर: पिता नो विभुर्विभावा सुदृशीको अस्मे । सुगार्हपत्या: समिषो दिदीह्यस्मद्रयक् सं मिमीहि श्रवांसि ।। ४९
(अजर: अग्नि:) अजर अग्निबल जो (हव्यवाट्) हविको वहन करता है (नः पिता) हमारा पिता है । (अस्मे) हममें (विभु:) वह अपनी सत्तामें व्यापक है, (विभावा) प्रकाशमें विस्तृत और (सुदृशीक:) दृष्टिमें पूर्ण है । (इष: सं दिदीहि) प्रेरणाकी अपनी शक्तियोंको पूरी तरह प्रज्वलित करो जो (सुगार्हपत्या:) हमारे गृहपति1से पूर्णतया संबंधित है । (श्रवांसि) अपने ज्ञानकी अंत:प्रेरणाओंको (सं मिमीहि) पूरी तरह निर्मित करो और (अस्मद्रचक्) उन्हें हमारी ओर मोड़ दो । ३
विशां कविं विश्यतिं मानुषीणां शुचिं पावकं धृतपृष्ठमग्निम् । नि होतारं विश्वविदं दधिध्वे स देवेषु वनते वार्याणि ।।
(अग्निम्) संकल्पबलको जो (कविं) द्रष्टा है, (मानुषीणां विशां विश्पतिं) मानव प्रजाओंका पति है, (शुचिम् पावकम्) पवित्र और पवित्र-कर्ता है, (घृतपृष्ठम्) अपने उपरितलपर मनकी निर्मलताओंसे युक्त है, (विश्वविदम्) सर्वज्ञ है,--ऐसे दिव्य संकल्पको (होतारम् नि दधिध्वे) अपनी हवियोंके वाहक पुरोहितके रूपमें अपने अन्दर धारण करो, (स देवेषु वार्याणि वनते) क्योकि वही देवोंमें तुम्हारे अभीष्ट वरोंको तुम्हारे लिए जीत लेता है ।
४
जुषस्वाग्न इळया सजोषा: यतमानो रश्मिभि: सूर्यस्य । जुषस्व नः समिधं जातवेद आ च देवान् हविरद्याय वक्षि ।।
(इळया सजोषा:) सत्य-दर्शनकी देवी2के साथ एकहृदयवाला होकर (सूर्यस्य रश्मिभि: यतमान:) प्रकाशस्वरूप सूर्यकी किरणों द्वारा प्रयास करता हुआ तू (अग्ने नः जुषस्व) प्रेमसे हमारा दृढ़संगी बन जा, हे शक्ति-देव ! (जातवेद: समिधं जुषस्व) सभी उत्पन्न पदार्थो व जन्मोंके ज्ञाता ! हमारे अन्दर जो तेरी समिधा है उसे हृदयसे स्वीकार कर और (देवान् आ वक्षि) देवोंको हमारे पास ले आ ताकि वे (हवि:-अद्याय) हमारी भेंटोंका आस्वादन कर सकें । ______________ 1. अग्नि यहाँ हमारे अन्दर रहनेवाली सर्वोच्च संकल्प-शक्ति हैं । हमारी सत्ताका पिता और अधिपति है, उसे हमारे अन्दर दिव्य संकल्प और ज्ञानके साथ पूरी तरह कार्य करना होता है । 2. इळा । ५० भागवत संकल्प--पुरोहित, योद्धा और हमारी यात्राका नेता ५
जुष्टो दमूना अतिथिर्दुरोण इमं नो यज्ञमुप याहि विद्वान् । विश्वा अग्ने अभियुजो विहत्या शत्रूयतामा भरा भोजनानि ।।
(अग्ने) हे अग्निदेव ! (जुष्ट: अतिथि:) प्रिय व स्वीकृत अतिथि, (नः दुरोण: दमून:) हमारे नव-द्वारोंवाले घरमें स्थायी निवास करनेवाला तू (विद्वान्) अपने संपूर्ण ज्ञानके साथ (न: इमं यत्राम्, उप याहि) हमारे इस यज्ञमें आ । (विश्वा: अभियुज: विहत्य) उन सब शक्तियोंका वध कर जो हमपर आक्रमण करनेमें प्रवृत्त होती हैं । (शत्रूयतां) जो अपने आपको हमारे शत्रु1 बनाते है उनके (भोजनानि आ भर) भोगोंको हमारे पास ले आ । ६
वधेन दस्यु प्र हि चातयस्व वय: कृण्वानस्तन्वे स्वायै । पिपर्षि यत् सहसस्पुत्र देवान्त्सो अग्ने पाहि नृतम वाजे अस्मान् ।।
(दस्युं) विभाजकको (वधेन) अपने प्रहारके द्वारा (प्र चातयस्व हि) हमसे दूर खदेड़ दे । (स्वायै तन्वे) अपने शरीरके लिए (वय: कृण्वानः) एक खुला स्थान बना । (यत्) जब तुम (सहस: पुत्र) हे शक्तिके पुत्र ! (देवान् पिपर्षि) देवोंको उनके लक्ष्य2 तक ले जाते हो, तब (अग्ने) हे शक्ति-रुप अग्ने (स:) ऐसे तुम (अस्मान् वाजे पाहि) हमारे परिपूर्ण ऐश्वर्यमें हमारी रक्षा करो, (नृतम) हे अत्यन्त शक्तिशाली देवता !
७
वयं ते अग्न उक्थैर्विधेम वयं हव्यै: पावक भद्रशोचे । अस्मे रयिं विश्ववारं समिन्वास्मे विश्वानि द्रविणानि धेहि ।।
(वयम्) हम (उक्यै:) अपनी स्तुतियोंसे और (वयम्) हम (हव्यै:) अपनी भेंटोंसे (ते) तेरे लिये अपने यज्ञको (विधेम) ठीक व्यवस्थित कर सकें, (पावक अग्ने) हे पवित्र करनेवाले संकल्पदेंव ! (भद्रशोचे) हे पवित्रताकी आनन्दमयी ज्वाला । (अस्मे) हमारे अंदर (विश्ववारं रयिं समिन्व) समस्त अभीष्ट वरोंका परमानन्द व्याप्त कर दो । (अस्मे) हमारे अंदर ______________ 1. सभी विरोधी शक्तियां जो मनुष्यकी आत्मापर आक्रमण करती हैं कुछ ऐसा ऐश्वर्य रखती है जिसे वह चाहता है और अपने पूर्ण वैभव तक पहुँचनेके लिए उसे वह ऐश्वर्य उनसे छीनना होता है । 2. मनुष्यमें कार्य कर रहे दिव्य संकल्प-बलसे हमारे अन्दरकी दिव्य शक्तियाँ सत्य और आनन्दमें अपने लक्ष्य तक ले जाई जाती हैं । ५१
(विश्वानि द्रविणानि धेहि) हमारी समृद्धियोंका संपूर्ण सारतत्व स्थिर कर दो । ८
अस्माकमग्ने अध्वरं जुषस्व सहस: सूनो त्रिषधस्थ हव्यम् । वय देवेषु सुकृत: स्याम शर्मणा नस्त्रिवरूथेन पाहि ।।
(विषधस्थ अग्ने) हमारे वासके तीन लोकोंमें1 निवास करनेवाले भगवत्संकल्प ! (सहस: सूनो) हे शक्तिके पुत्र ! (अस्माकम् अध्वरं हव्यं) हमारे यज्ञ और हमारी हविका (जुषस्व) हृदयंसे और दृढ़तापूर्वक सेवन कर । (वयं देवेषु सुकृत: स्याम) हम देवोंके निकट अपने कार्योंमें पूर्ण हो जायँ और तू (त्रिवरूथेन शर्मणा) तीन कवचों2 से वेष्टित अपनी शान्तिसे (नः पाहि) हमारी रक्षा कर । ९
विश्वानि नो दुर्गहा जातवेद: सिन्धुं न नावा दुरितानि पर्षि । अग्ने अत्रिवन्नमसा गृणानोऽस्माकं बोध्यविता तनूनाम् ।।
(जातवेद:) हे सब उत्पन्न पदार्थों व जन्मोंके ज्ञाता ! (दुर्गहा) प्रत्येक कठिन चौराहे परसे और (विश्वानि दुरितानि) अशुभमें होनेवाले सब प्रकारके पतनसे (नः) हमें (सिंधु नावा न) समुद्रके पार पहुँचानेवाले जहाजकी तरह (पर्षि) पार लगा । (अग्ने) हे संकल्पदेव ! (अत्रिवत् अस्माकं नमसा गृणान:) अत्रिकी तरह हमारे प्रणामोंसे प्रकट किया हुआ तू (बोधि) हमारे अंदर जागृत हो और (तनूनाम् अविता) हमारी शरीर3- रचनाओंका पोषक बन ।
१०
यस्त्वा हृदा कीरिणा मन्यमानोऽमत्यं मर्त्यो जोहवीमि । जातवेदो यशो अस्मासु धेहि प्रजाभिरग्ने अमृतत्वमश्याम् ।। ______________ 1. मानसिक, प्राणिक, शारीरिक इन निम्नतर ''जन्मों''में । हमारे जन्मोंके ज्ञाता दिव्य संकल्पको इनका संपूर्ण ज्ञान है और इनके द्वारा उसे (संकल्पशक्तिको) हमारे आरोहण करनेवाले यज्ञको अतिमानस तक ले जाना होता है । 2. मानसिक, प्राणिक और भौतिक सत्तामें शान्ति, आनन्द और पूर्ण तृप्ति । 3. न केवल भौतिक शरीर, अपितु प्राणमय, मनोमय कोष, आत्माकी सभी देहवद्ध अवस्थाएँ या रूप । ५२
भागवत संकल्प--पुरोहित, योद्धा और हमारी यात्राका नेता
(य:) जो मैं (कीरिणा हृदा) दिव्यकर्मको संपन्न करनेवाले हृदयसे (त्वा मन्यमान:) तेरा ध्यान करता हूँ और (मर्त्य:) मरणधर्मा मै (अमर्त्यं) तुझ अमरको (जोहवीमि) पुकारता हूँ, (अस्मासु) उस मुझमें, हम सभीमें (अग्ने) हे संकल्प देव ! (जातवेद:) सब उत्पन्न पदार्थों व जन्मोंके ज्ञाता ! (यश: धेहि) विजयश्री प्रतिष्ठित कर ताकि हम (प्रजाभि:) अपने कार्योंकी सन्ततिसे, उनके फलसे (अमृतत्वम् अश्याम्) अमरता प्राप्त कर सकें । ११
यस्मै त्वं सुकृते जातवेद उ लोकमग्ने कृणव: स्योनम् । अश्विनं स पुत्रिणं वीरवन्तं गोमन्तं रयिं नशते स्वस्ति ।।
(जातवेद: अग्ने) हे सब उत्पन्न पदार्थों व जन्मोंके ज्ञाता अग्निदेव ! (यस्मै सुकृते) अपने कार्योंमें पूर्णतासे युक्त जिस मनुष्यके लिये (त्वम्) तू (स्योनं लोकं कृणव:) एक दूसरे ही आनन्दपूर्ण लोक1 का निर्माण करता है (स:) वह (रयिं नशते) ऐसे परम आनन्द को पहुँच जाता है जिसमें (अश्विनं) उसके जीवनरूपी अश्वकी तीव्र गतियाँ, (गोमन्तं) उसके प्रकाश-यूथ, (पुत्रिणं) उसके आत्माकी सन्ततियां और (वीरवन्तं) उसकी शक्ति2की सेनाएँ (स्वस्ति) सानन्द विद्यमान होती हैं । _____________ 1. दिव्य संकल्पशक्तिको हमारे निरन्तर विस्तार और आत्मपरिपूर्णताके परिणामस्वरूप हमारे अंदर अतिमानसिक लोकका निर्माण या सर्जन करना होता है । 2.अश्व, गौ, पुत्र और वीरके सतत वैदिक प्रतीक । पुत्र और संतानें नये आत्मिक रूप हैं जो हमारे अन्दर दिव्य व्यक्तित्व, नये जन्मको बनाते हैं । वीर हैं मानसिक और नैतिक शक्तियाँ जो अज्ञान, द्वैध, बुराई और असत्यके प्रहारोंका प्रतिरोध करती हैं । प्राणिक शक्तियां प्रेरक शक्तियाँ हैं जो हमारी यात्रापर हमें वहन किये चलती हैं और इसी लिए अश्व उनका प्रतीक है । किरणोंके यथ वे दीप्तियाँ हैं जो अतिमानसके सत्यसे हमारे पास आती हैं । वे ज्योतिर्मय सूर्यके किरणयूथ हैं । ५३
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